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चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ। चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ॥ चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ। चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूँ, भाग्य पर इठलाऊँ॥ मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ में देना तुम फेंक॥ मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने। जिस पथ जावें वीर अनेक॥
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर, गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर, भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर, गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर। खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में, जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में, कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में, चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में— सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे ! नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे ! झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को, टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को; विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को, राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को; वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को, टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं। मुख से न कभी उफ़ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं, जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं, शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़ मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है। गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर, मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो। बत्ती जो नहीं जलाता है रोशनी नहीं वह पाता है। पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड, मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं।
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो , किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान । समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे । समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल । तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध ।